वैद्य धन्वन्तरि एवं अमृत
वराहपुराण के अनुसार पौष शुक्ल दशमी को देवासुर संग्राम प्रारम्भ हुआ, जो २ वर्ष ९ मास १० दिन तक चला। कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी की अमृतकलश लिए श्वेतवस्त्रधारी वैद्य धन्वन्तरि समुद्र से प्रकट हुए। मानव मात्र के रोग संकट दूर करने के कारण त्रयोदशी (कृष्ण पक्ष) वैद्य धन्वन्तरि के सम्मान में मनाई जाती है।
ततो धन्वन्तरिर्विष्णुरायुर्वेदप्रवर्तकः ।
विभ्रत्कमण्डलुं पूर्वं प्रभृतेन समुत्थितः ॥ अग्नि पुराण ३१/११
धन्वन्तरेः सम्भावोऽयं श्रुतामिह वै द्विजाः ।
स सम्भूतः समुद्रान्ते मध्यमानेऽमृतं पुरा ॥ वायु पुराण १२/९
ततो धन्वन्तरिर्देवः श्वेताम्बरधरः स्वयम् ।
बिभ्रत् कमण्डलुं पूर्णममृतस्य समुत्थितः ॥ विष्णु पुराण १/९
उदधेर्मध्यमाच्च निर्गतः सुमहायशाः ।
धन्वन्तरिरिति ख्यातो युवा मृत्युञ्जयः परः ॥
पाणिभ्यां पूर्णकलशं सुधायाः परिगृह्य वै ॥ स्कन्द पुराण
पीतावासा महोरस्कः सुमृष्टभागे कुण्डलः ।
स्त्रिग्धकुञ्जितकेशान्तः सुभगः सिंहविक्रमः ॥ श्रीमद्भागवत पु. ८/८
ततोधन्वंतारेर्जातः श्वेतांबरधरः स्वयम्
बिभ्रत्कमण्डलु पूर्णामृतररूपसमुत्थितः
ततः स्वस्थमनस्कास्तेवैद्यराजस्यादर्शनात् । पद्मपुराण सृष्टिखण्ड १/५६-५७
ऐसा माना जाता है कि समुद्र मन्थन से पूर्व नाना प्रकार की औषधियाँ समुद्र में डाली गईं थीं, जिसके कारण समुद्र मथते समय सभी औषधियों का सारभाग अमृतरूप में परिणत हो गया था। उपर्युक्त विवरण को यदि आधुनिक परिप्रेक्ष्य में विचारा जाए तो यह स्पष्टतया झलकता है कि औषधियों के मन्थन करने से उसमें अमृततुल्य गुण उत्पन्न होते हैं क्योंकि रस-औषधि तो विशेष रूप से मन्थन एवं मर्दन क्रिया से ही गुणकारी बनती हैं। अतः समुद्र मन्थन से अमृत एवं धन्वन्तरि दोनों ही आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण हैं।
रामायण में आयुर्वेद
रामायण में अनेक प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों का वर्णन प्राप्त हुआ है। श्रीराम चित्रकूट में भरत से कुशल-क्षेम पूछते हुए, यह कहते हैं कि वैद्यों को समुचित रूप से सम्मानित करने में हे भाई तुम कभी प्रमाद तो नहीं करते हो ? ऐसी जिज्ञासा यह स्पष्ट करती है कि अयोध्या में वैद्यों को समुचित आदर प्राप्त था। श्रीराम बड़ी तत्परता से भरत के साथ आए वैद्यों से भेंट भी करते हैं।
कोप भवन में कैकयी रानी की दशा देखकर महाराज दशरथ उन्हें व्याधिग्रस्त जानकर, उन्हें आश्वासन देते हैं कि – वे कुशल वैद्यों से उनका उपचार करवा कर उन्हें रोगमुक्त करवा देंगे।
सन्ति मे कुशला वैद्यास्त्वभितुष्टाश्च सर्वशः ।
सुखितां त्वां करिष्यन्ति व्याधिमाक्ष्व भामिनि ।।
राम-रावण युद्ध के अवसर पर जब लक्ष्मणजी मूर्च्छित हो गए थे, तब वैद्यराज सुषेण संजीवनी नामक वानस्पति औषधि लाने के लिए हनुमान जी को हिमालय पर्वत पर भेजते हुए कहते हैं – हे वीर तुम हिमालय पर्वत के दक्षिण शिखर पर उत्पन्न होने वाली विशल्यकरणी, सावर्ण्यकरणी, संजीवकरणी और संधानी नामक महौषधियाँ शीघ्रता से जाकर ले जाओ। इन औषधियों में से मूर्च्छा के लिए संजीवकरणी, बाण या भाले के प्रहार से घाव होने पर विशल्यकरणी, घावों का निशान भी न रहने पाएँ इसके लिए सावर्ण्यकरणी और टूटी हुई हड्डियों को जोड़ने के लिए संधानी नामक औषधि का प्रयोग किया गया था।
युद्ध में शस्त्र-प्रहार से कटे अङ्गों को पुनः जोड़ने तथा गले सड़े अङ्गों को शल्यक्रिया द्वारा अलग किया जाता था, किन्तु इस चिकित्सा को प्राथमिकता नहीं दी जाती थी।